पुस्तक समीक्षा | डॉ. मधु सन्धु
समीक्ष्य पुस्तक : पानी केरा बुदबुदा (उपन्यास)
लेखिका : सुषम बेदी
प्रकाशक : किताब घर
वर्ष 2017
पृष्ठ : 167, पेपरबैक
मूल्य : ₹ 300.00
‘पानी केरा बुदबुदा’ 2017 में किताबघर, दिल्ली से प्रकाशित सुषम बेदी का नौवाँ उपन्यास है। इससे पहले उनके ‘हवन’, ‘लौटना’, ‘इतर’, ‘कतरा-दर-कतरा’, ‘नवाभूम की प्रेमकथा’, मोरचे’, ‘मैंने नाता तोड़ा’, ’गाथा अमरबेल की’ हिन्दी साहित्य को मिल चुके हैं। ‘पानी केरा बुदबुदा’ में कुल 38 परिच्छेद हैं। उपन्यास नायिका प्रधान है। यूँ तो आदि से अंत तक नायिका पिया का ही जीवन संघर्ष, द्वंद्व, चिंतन, समझौते, छटपटाहटें हैं, लेकिन उसका जीवन निशांत, अनुराग, दामोदर, रोहण से जुड़ा है। इसी कारण 12 परिच्छेदों के शीर्षक नायिका पिया के नाम पर, सात के पिया के पुरुष मित्रों निशांत और अनुराग के नाम पर, दो के पति दामोदर के नाम पर, पाँच के बेटे रोहण के नाम पर हैं और पाँच परिच्छेद अनाम हैं।
पिया, निशांत, अनुराग – सभी पात्र मनोविद हैं, अपने-अपने नियंता हैं, सूत्रधार हैं, सर्वज्ञानी हैं। दुनिया भर की मानसिक समस्याओं का समाधान खोजने वाले हैं फिर भी पिया लगातार मन:लोक की ऊहापोह में जूझ रही है। संतप्त है। अनुराग पत्नी-बच्चों के बावजूद अपनी अनियंत्रित यौनेच्छाओं के कारण भटक रहा है। निशांत मानता है कि जिसे मन:रोग कहते हैं, वह अमीर देशों की कारगुजारी है, चोंचले हैं। क्योंकि दाम्पत्यगत तनाव या व्यापारगत उथल-पुथल सामाजिक समस्याएँ हैं। दाम्पत्यगत मारपीट प्रशासनिक समस्या है, पुलिस की सुरक्षा चाहिए। बहुत सी समस्याएँ सोशल वर्कर हल कर सकते हैं। परिवार ही नहीं है, तो अकेलापन तो रहेगा, मनोविद इसमें क्या करेगा। तीसरी दुनिया के आवासी भी अपनी सांस्कृतिक समस्याओं से जूझ रहे हैं।
नायिका पिया का व्यक्तित्व ठहरे जल सा न होकर बहती नदी सा गतिशील है। वह कश्मीर से दिल्ली और दिल्ली से विदेश पहुँचती है, डॉक्टर से स्पेशलिस्ट बनती है, पति दामोदर के अत्याचारों से तंग आ स्वतंत्र जीवन का चयन करती है। अपने अकेलेपन, अपनी आज़ादी का पूरा सुख लेती है। यह कड़वा-कसैला दाम्पत्य उसे बताता और महसूस करवाता है कि विवाह जीवन का अंत हो सकता है, उद्देश्य नहीं। पिया अपनी स्वामिनी स्वयं है। अपनी नियति की नियामक है। भारत में होती तो इस विषैले दाम्पत्य को लेकर जीवन भर तड़पती-बिलखती रहती, विदेश की धरती उसे अत्याचारों से विद्रोह के लिए स्पेस देती है। अमेरिका पहुँचकर वह अनुभव करती है कि त्याग, क्षमा, उत्तरदायित्व सिर्फ स्त्री के हिस्से की चीज़ नहीं है। दामोदर से मुक्त होते ही वह नए जीवन, जीवन साथी की खोज में दिखाई देती है। वह उस राजकुमार की तलाश में भटक रही है, जो उसे प्रेम भी करे, प्रतिबद्ध भी हो और अपने को पिया के अनुरूप ढाल भी ले। इंजीनियर पति दामोदर और मनोविद मित्र अनुराग और निशांत – कोई भी उसके मन को पढ़ने की क्षमता नहीं रखता। उनका अहं, स्वार्थ और स्वछंदता आड़े आते हैं। अनुराग का सान्निध्य और साहचर्य उसे मादकता, सरूर और सुकून देते हैं, जबकि निशांत अपनी बेमुरव्वती, बेशर्मी, बेहयाई, विरूपता की हद तक की स्पष्टवादिता के बावजूद उसे बाँधता है। लेकिन वह स्थिरता चाहती है, विवाह चाहती है, जिसके लिए पुरुष मित्र तैयार ही नहीं।
सच्चाई यह है कि स्त्री सामान्य सम्मानित जीवन और घर के लिए तड़प रही है और पुरुष को कोई बंधन नहीं चाहिए, वह कोई कमिटमेंट नहीं करना चाहता- न दामोदर, न अनुराग, न निशांत। उसका सर्वगुण सम्पन्न, खानदानी, इंजीनियर, अमेरिकावासी पति उससे ज़्यादा से ज़्यादा काम लेता है, दिन-रात मारता-पीटता है, सारे पैसे छीन-झपट लेता है और फिर भी नाख़ुश है। कहता है- “चुप करके अस्पताल जाया कर और कमाया कर। इससे ज़्यादा तुझे कुछ समझ नहीं। दख़ल मत दिया कर मेरे फ़ैसलों में। मरद हूँ मैं इस घर का।” जितना अनुराग के झूठ ने उसे ठगा है, उतना ही निशांत की सच्चाई ने। अनुराग कहता है, “शादी घर-परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए होती है, निजी ज़रूरतों को नहीं। तुम मेरे निजी जीवन का हिस्सा हो। मेरे अंतस का, मेरे दिल की गहराइयों का.. बस।” निशांत कहता है, “मुझे ढर्रे में बँधी ज़िंदगी अच्छी नहीं लगती। …जो नहीं बँधा, उसे चाहने में बुराई क्या है।” अगर पिया का पति नायक नहीं है, तो सुषम ने अनुराग या निशांत को भी नायकत्व नहीं दिया। महा मानव भी कोई नहीं है। धर्म और दर्शन ने जिसे स्त्री का नैतिक संरक्षक माना था, वह यहाँ प्रश्नचिन्हों से घिरा हुआ है। किन्तु कोई भी खलनायक नहीं है।
अगर मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो समाज में, अपने मरीज़ों में, अस्पताल में पिया का सम्मानित स्थान है। अगर मनुष्य पारिवारिक प्राणी है, तो वह तनावग्रस्त दाम्पत्य को झटक देशकालानुसार नया संसार गढ़ ही लेती है, हाँ! उसे दाम्पत्य का कलेवर न दे पाना ही उसकी वेदना-हताशा को जन्म देता है। मनुष्य अगर आर्थिक प्राणी है, तो पिया सशक्त, अर्थ-सम्पन्न स्त्री है, वह प्रेमियों को अपने यहाँ रख भी सकती है और निकाल भी सकती है।
दर्द तो कई हैं। प्रिया इटली, रोम, लंदन, न्यू मेक्सिको वग़ैरह घूम चुकी है। वह कश्मीर की कली है। कश्मीर- एक भूला हुआ सपना, एक गहरे दबा हुआ दर्द है। जहाँ से घर-बाहर सब छीन-झपट कर आतंकवादियों द्वारा कश्मीरी पंडितों को निकाल दिया गया और यह विस्थापित परिवार दिल्ली में आकर बस गया। पिया ने अपने पैसों से दिल्ली में घर बनवाया और उससे पूछे बग़ैर अपने ही भाई ने उसे बेच दिया। यह जड़ों से दूसरी बार उखड़ने की वेदना थी।
यह कश्मीर से दिल्ली और दिल्ली से अनिच्छा से अर्थसजग पति के साथ अमेरिका पहुँची एक अस्तित्व चेतन डॉक्टर लड़की की कहानी है। उसमें दुर्घटना बने दाम्पत्य का अध्याय बंद कर अपनी निर्णय क्षमता से आगे बढ़ने की शक्ति है। उसके दो प्रेमी हैं, पर उपन्यास प्रेम कहानी नहीं। यह वैश्विक स्तर पर एक स्त्री की संघर्ष गाथा है, जो युवावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था के उस पार तक जाती है (यानी बासठ वर्ष- वह दादी भी बन चुकी है)। सुषम के हवन में बाहरी संघर्ष अधिक है और लौटना में अन्तर्मन का विस्तृत विश्लेषण। पानी केरा बुदबुदा की पिया चील तो नहीं, पर चिड़िया अवश्य है, उसमें उड़ने की तीव्र इच्छा है। सड़क की और जीवन की लय वह जानती भी है और पहचानती भी, इसीलिए संयत है।
उपन्यास सोचने के लिए नई ज़मीन देता है। एक आदिम, असामाजिक, संसार रचा जा रहा है। पुरुष अगर पति है तो पत्नी पर निरंकुश अधिकार चाहता है और अगर प्रेमी है, तो स्वच्छंदता। नायिका दाम्पत्य से एक तलाक़ के बाद भी अपने प्रेम को दाम्पत्य/ विवाह में बदलने की आकांक्षा रखती है, लेकिन वह जिस संतुलित आदम की तलाश में है, वह शायद बना ही नहीं। बेटा रोहण कहता है, “कहीं ऐसा तो नहीं कि जैसा पुरुष तुम चाहती हो, वैसा होता ही नहीं। आज तक मैं जितना समझ पाया हूँ वह यह कि रिश्ते कभी परफ़ेक्ट नहीं होते।”
सभी पात्र सामाजिक मान्यताओं, सांस्कृतिक मूल्यवत्ता को तड़ाक-तड़ाक तोड़ रहे हैं, उनके परखचे उड़ा रहे हैं। उपन्यास विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखा गया है, लेकिन इसकी बेचैनियाँ सार्वदेशिक हैं। यह उस देश की, उस संस्कृति की, उस चिंतन की, उस अत्याधुनिकता की कहानी है, जहाँ सेक्स कोई दुराग्रह नहीं है। नायिका क्षणबोध की उपासिका तो नहीं, लेकिन नियति उसे क्षणबोध के लिए बाधित कर रही है।
बहुत सी पंक्तियाँ सूत्र वाक्यों की तरह उभरती हैं-
- एक बार रिश्ता जुड़ ही जाये तो क्या टूटन की चुभन से बचा जा सकता है।
- जो अनकहे ही मिल जाता है, उसकी चाह ही कहाँ रह जाती है।
- लोग बदलते नहीं, बदलने की चाह रखते हैं।
- दूसरों की नज़र से ख़ुद को देखना कितना अनिवार्य हो जाता है।
- सुख और दायित्व दोनों का ही संतुलन रहे तो रिश्ता सुखकर होता है, पर अगर दायित्व ही हावी रहे तो कहाँ तक निभाता चले कोई।
- उल्लास के कोई भी क्षण स्थायी नहीं होते।
- वक्त के साथ चोटों के दंश अपनी धार खो देते हैं।
- अपने को सर्वोपरि रखो, दूसरों को महत्त्व ही नहीं दोगे तो वे तुमको कष्ट पहुँचाने के काबिल ही नहीं रहेंगे।
‘पानी केरा बुदबुदा’ का सूत्र-बाहुल्य सुषम बेदी की चिंतनगत प्रौढ़ता से बार-बार पाठक को रू-ब-रू करवाता है। कथ्यगत गहराई और अभिव्यक्तिगत कलात्मकता आदि से अंत तक उपन्यास की रोचकता और पठनीयता को बनाए रखते हैं।
– मधु संधु
पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब
वेब पत्रिका ‘साहित्यकुंज’ से साभार