1966-69 के दौरान मैं दिल्ली विश्विद्यालय से बी.ए. कर रही थी; हिंदी मेरा ऑप्शनल विषय था; प्राध्यापक थीं सुषम बेदी। कक्षा में बजाय उन्हें सुनने के, मैं उन्हें निहारा अधिक करती थी। जब वह पहली बार हमारी क्लास में आईं तो हमने सोचा कि वह भी एक छात्रा थीं किन्तु जब वह सीधे ब्लैकबोर्ड के पास खड़ी हो गईं तो माथा ठनका। ख़ूबसूरत तो थीं ही, उनकी पोशाक साड़ी, सादी किन्तु उत्तम थी। वह शब्दों को बहुत तोल-तोल कर बोलतीं थीं, जैसे बोलने के साथ-साथ सोच भी रही हों। पहली ही नज़र में वह हम सभी छात्राओं को अच्छी लगीं और उनकी क्लास में कभी गड़बड़ नहीं हुई क्योंकि पाठ्यक्रम से वह कभी नहीं भटकती थीं और न ही हमें भटकने देती थीं। मेरी पढ़ाई सरकारी स्कूल में हुई थी और मेरी सभी सहपाठिनें कॉन्वेंट स्कूल की पढ़ीं-लिखी थीं, अंग्रेज़ी में फर्स्ट-क्लास लेने के बावजूद मुझे बोलने का अभ्यास नहीं था इसलिए मैं बहुत कम बोलती थी। उनकी तरह बोलने का अभ्यास करती, बोलने से पहले सोचती तो सोचती चली जाती, मौक़ा निकल जाता।
भारत-चीन के युद्ध (1967) के दौरान मेरी पहली कहानी कॉलेज की पत्रिका में छपी, जो एक सैनिक की विधवा के जीवन पर आधारित थी। सुषम जी को इसकी जानकारी अवश्य होगी किन्तु उन्होंने इसका कभी ज़िक्र नहीं किया; मन ही मन मुझे लगा कि शायद उन्हें पसंद नहीं आई होगी, घोर निराशा हुई। अगले ही वर्ष, उन्होंने मेरी एक दूसरी कहानी, ’वह काली’, को अंतर-विश्वविद्यालयीय कहानी प्रतियोगिता के लिए नामांकित किया। आत्मविश्वास की कमी के कारण मैं पुरस्कार वितरण समारोह में उपस्थित नहीं हो पाई। द्वितीय पुरस्कार के साथ, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी ने अपनी दो पुस्तकें मेरी प्रधानअध्यापिका को भिजवाईं। पूरी कक्षा के सम्मुख जब उन्होंने मुझे पुरस्कार सौंपा तो सुषम जी ने बताया गया कि सर्वेश्वर जी ने समारोह में मेरी कहानी का ज़िक्र करते हुए कहा था कि पुरस्कृत लेखिका ने एक साँवली लड़की की वेदना को बहुत ही संवेदनशीलता से मुखरित किया है। सहपाठियों ने पहली बार जाना कि मैं लिखती भी हूँ, मेरी कुछ इज़्ज़त बढ़ी और पहली बार दो अच्छी सहेलियाँ बनीं। फिर दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एक कविता-प्रतियोगिता के दौरान सुषम जी ने मेरी परिचय सर्वेश्वर दयाल जी से करवाया गया वह हँस कर बोले कि “अरे, मैं तो समझा था कि ‘वह काली’ तुम्हारी अपनी कहानी है पर तुम बहुत गोरीचिट्टी ही हो। बहुत अच्छी कहानी है, तुम एक सफल लेखिका बन सकती हो।”
विवाहोपरांत, मेरे जीवन में इतनी उथल-पुथल रही कि पढ़ना-लिखना लगभग लगभग छूट गया किन्तु जब भी सुषम जी के बारे में सुनती, मेरे कान खड़े हो जाते। अच्छा लगता था कि कोई जान-पहचान वाला तरक़्क़ी के पथ पर है। शायद अचेतन में यह भी रहा हो कि उस मुक़ाम पर पहुँचा जा सकता है। उनके अमेरिका में और मेरे लंदन में बसने के अर्सों बाद, मेरा उनसे लंदन में मिलना हुआ, मैं झिझक रही थी कि वह मुझे पहचानेंगीं भी नहीं किन्तु यह बड़े तपाक से मिलीं; एक अच्छे दोस्त के रूप में। मेरे ‘सुषम जी’ के संबोधन पर वह हमेशा ग़ुस्साती रहीं। हमारी उम्र में केवल 7 वर्ष का अंतर था और वो मेरी गुरु रहीं थीं, कैसे उन्हें ‘जी’ न कह कर पुकारती?
नब्बे के दशक में वह हर साल लंदन आती थीं, कभी लंदन विश्वविद्यालय के हॉस्टल में तो कभी रीजेन्टस पार्क में तो कभी नेहरू केंद्र में हमारी मुलाक़ातें होतीं। कभी-कभी उनके पति राहुल भी साथ होते; उन दोनों को साथ देखना भी आनंद देता था; लगता था कि जैसे वे एक दूजे के लिए ही बने हों। बेटी पूर्वा की बातें करतीं तो लगता कि जैसे वह अपने बहुत से सपने पूर्वा के माध्यम से भी पूरे कर रही थीं। अपनी-अपनी बेटियों की तारीफ़ें करते नहीं थकते थे और फिर अपना ही मज़ाक उड़ाते थे कि कैसे माँ-बाप अपने बच्चों की बातें बता कर अथवा विडिओज़/ फ़ोटोज़ दिखा कर लोगों को बोर किया करते हैं।
उसके बाद तो भारत में कई सम्मेलनों, समारोहों और सेमिनार्स में उनसे मिलना होने लगा। विशाखापट्नम में उनसे बातें करने का बहुत समय मिला, घर-परिवार की, लिखने-पढ़ने की और कभी-कभी बस कोरी चटपट। वह मेरे फोन-फोबिया के विषय में जानती थीं इसलिए कभी कभी मुझे स्वयं ही फोन कर लिया करती थीं, उन्होंने कभी नहीं सोचा कि हमेशा मैं ही क्यों फोन करूँ, वो भी अपनी एक विद्यार्थी को।
मेरे द्वारा सम्पादित लगभग सभी संग्रहों में – ‘ओडिस्सी’, ‘आशा’, ‘देसी-गर्ल्ज़’, ‘इक सफ़र साथ साथ’ – उनकी कहानियाँ सम्मिलित रहीं और पसंद भी की गईं क्योंकि वह अपनी रचनाओं में अमेरिका के पर भी रोशनी डालती हैं। 1998 में प्रकाशित एवं सम्पादित मेरे पहले संग्रह ‘ओडिस्सी’ में उनकी कहानी, इन द पार्क, पढ़ कर मैं उनकी मुरीद हो गयी थी। बिना किसी पूर्वाग्रह के उन्होंने जिस तरह से दो देशों के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं की तुलना की है, अतुलनीय है। कहानी दिल को दहलाती और पिघलाती सी चलती है।
‘इक सफ़र साथ साथ’ संग्रह का शीर्षक भी उन्होंने ही सुझाया था। इस संग्रह में उनकी ‘एक अधूरी कहानी’ में अमेरिकन-सिपाही एक भारतीय-अफ़्रीकी मूल के बेक़सूर नौजवान को गोली से उड़ा देती है, पृष्ठभूमि में है, वही रंगभेद का मुद्दा, जिसके कई घिनौने रूप बड़ी सजीवता से चित्रित किए गए हैं। संग्रह, देसी-गर्ल्ज़, उनकी कहानी, Remains, वृद्ध-आश्रम में रह रही बूढ़ी कमला की है, जिसके बेटे बेटियाँ अपनी नौकरियों और परिवारों में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें उनसे मिलने की फ़ुर्सत नहीं मिलती। अंग्रेज़ी के अल्प ज्ञान के रहते, वह आवृद्ध-आश्रम के कर्मचारियों और निवासियों से ठीक से बात भी नहीं कर सकती। कभी-कभी उसे लगता है कि वह मुर्दा है, जो जी रहा है। उनकी कहानियों, कविताओं और उपन्यासों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, दुनिया भर में रिसर्च हो चुकी है और हो रही है इसलिए मैं उनकी रचनाओं के विषय में और कुछ नहीं लिखना चाहती, न ही मैं इस क़ाबिल हूँ।
मैं अपने को बहुत भाग्यशाली मानती हूँ कि सुषम जी मेरे जीवन में बहुत से रूपों – गुरु, प्रेरक, सखा – में मौजूद रहीं। मुझे नहीं लगता कि वह अब नहीं रहीं। जब तक मेरी यादों में हैं, वह ज़िंदा हैं, कम से कम मेरे जीते जी।
– दिव्या माथुर
वेब पत्रिका ‘साहित्यकुंज’ से साभार