शोध निबन्ध | डॉ. विजय शर्मा

रंग भेद मनुष्यता के नाम पर एक बड़ा घिनौना और अक्षम्य अपराध है। आज के सभ्य समाज में भी यह अपराध खुलेआम जारी है। अमेरिका जैसे उन्नत देश में यह किसी न किसी रूप में अभी भी क़ायम है। वैसे तो 1866 में ही अमेरिका में दास प्रथा समाप्त कर अश्वेत लोगों को नागरिकता प्रदान करने और वोट देने के अधिकार के लिए क़ानून बनाने का काम प्रारंभ हो गया था।1 मगर क़ानून बनाने से ही सामाजिक समानता और न्याय स्थापित नहीं हो जाता है। लोगों, श्वेत लोगों का नज़रिया अश्वेतों के प्रति बदलने में बहुत समय लगा। एलेक्स हेली के उपन्यास ‘रूट्स’2 और उस पर आधारित फ़िल्म (छ: भाग) में इसे देखा जा सकता है कि कैसे क़ानून बनने के बाद भी अत्याचार जारी रहा बल्कि उसमें षड्यंत्र और बेईमानी भी शामिल हो गई। 1955 में रोज़ा पार्कर की ज़िद और मार्टिन लूथर किंग जूनियर के प्रयासों के फलस्वरूप काफ़ी बदलाव आया।3 (विस्तृत जानकारी के लिए विजय शर्मा की संवाद प्रकाशन से आई पुस्तक ‘अपनी धरती, अपना आकाश: नोबेल के मंच से’ को देखा जा सकता है) तमाम क़ानून बने। फिर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अश्वेत अमेरिकन को हेय दृष्टि से देखते हैं। यह भी सही है कि किसी पर अत्याचार करने के लिए उसे शारीरिक कष्ट देना ही एक मात्र तरीक़ा नहीं है। शारीरिक कष्ट से ज़्यादा चोट मानसिक अत्याचार द्वारा आघात दे कर पहुँचाया जा सकता है। अमेरिका में अश्वेतों पर शारीरिक अत्याचार रुक गए मगर उनके प्रति लोगों का नज़रिया नहीं बदला है। उन्हें दूर रखने के, अवसर से वंचित रखने के बहुत सूक्ष्म तरीक़े अपनाए जाते हैं। 

आज भी बहुत सारे ऐसे लोग मिल जाएँगे जो पढ़े-लिखे हैं जिन्हें क़ानून का ज्ञान है मगर वे भेदभाव बरतते हैं। ऐसे लोग अश्वेतों को ग़ैरभरोसेमंद, बेईमान और चोर मानते हैं। ख़ुद अपने और अपने लोगों तथा अपने समाज के लिए अश्वेत लोगों को ख़तरा मानते हैं। जितना हो सके उन्हें ख़ुद से दूर रखने का प्रयास करते हैं। रंगभेद का यह सूक्ष्म रूप लोगों के व्यवहार और बातचीत में प्रकट होता है। ऐसे लोग अपनी शक्ति का उपयोग/दुरुपयोग करके अश्वेत लोगों के अधिकार का हनन करते हैं। अश्वेत लोगों पर केवल श्वेत ही अविश्वास नहीं करते हैं। भूरी नस्ल अर्थात एशियाई नस्ल के लोग, जो स्वयं भी भेदभाव का शिकार होते रहते हैं, वे भी अश्वेत लोगों पर विश्वास नहीं करते हैं। ऐसे लोग अपने शोषण का रोना रोते हैं लेकिन दूसरों का शोषण करते समय यह भूल जाते हैं कि वे ख़ुद भी वही अपराध कर रहे हैं। ये लोग मानव अधिकारों का हनन करते हैं। ऐसे लोगों को क़ानूनी तौर पर सज़ा मिलनी चाहिए। मगर सज़ा मिलती है अश्वेतों को। इन्हीं बातों को दर्शाती हुई एक कहानी प्रवासी हिन्दी कहानीकार सुषम बेदी ने लिखी है।

प्रवासी हिन्दी कहानीकारों में अमेरिका में रह रही कहानीकार सुषम बेदी का नाम काफ़ी आदर के साथ लिया जाता है। सुषम बेदी की ‘अन्यथा’ में प्रकाशित कहानी ‘चट्टान के ऊपर, चट्टान के नीचे’ प्रोफ़ेसर डोरा जॉनसन के मन में चल रही बातों को दिखाती है। मानवता के प्रति उसकी चिंता को दर्शाती है। एक साक्षात्कार में सुधा ओम ढींगरा से बातचीत करते हुए सुषम बेदी कहती हैं, “मुझे मानवीय रिश्तों, रिश्तों के बीच व्यक्ति की अपनी पहचान, मानव मन की गुत्थियाँ, उलझनों को समझने की, उनकी पड़ताल में गहरे उतरते चले जाने में हमेशा रुचि रही है। यही मेरे लेखन के मूल विषय हैं।”4 इस कहानी में भी वे मानवीय रिश्तों, मानव मन की गुत्थियों, उलझनों को समझने, उनकी पड़ताल करती नज़र आती हैं।

डोरा न्यूयॉर्क की एक यूनिवर्सिटी में एंथ्रोपोलॉजी पढ़ाती है। वह एक “उदारमना, संवेदनशील और लिबरल किस्म की महिला थी जो मानव अधिकारों के कई मुद्दों के लिए लड़ चुकी थी। इसी सिलसिले में वह अफ़्रीका और भारत-पाकिस्तान की यात्रा भी कर चुकी थी। यूँ भी भारत-पाकिस्तान जैसे देशों से उसका एक तरह से पुश्तैनी संबंध था।”5 कहानी संकेत देती है कि अफ़्रीका और भारत-पाकिस्तान में मानव अधिकारों का हनन होता है। मगर यह विडम्बना है कि मानव अधिकारों के संरक्षण का पुरोधा बने अमेरिकी समाज में भी यह मनोवृति पाई जाती है। डोरा न केवल पढ़ाती है वरन पढ़े-पढ़ाए हुए को जीना भी चाहती है। कहानीकार उदारमना, संवेदनशील और लिबरल होना डोरा की विशेषताएँ बताती हैं। डोरा को लगता है, “उसे इंसानियत के बारे में सिर्फ़ पढ़ाना और लिखना ही नहीं, कुछ करने की भी ज़रूरत है।”6 डोरा के लिए कथनी और करनी में भेद नहीं है। वह जो सिद्धांत अपने छात्रों को सिखाती है उन्हें अपने जीवन में वास्तविक रूप में व्यवहृत भी करती है। वह समाज के लिए भी कुछ करना चाहती है। मानव अधिकार के लिए लड़ना अपना फ़र्ज समझती है। दूसरे के अधिकारों की रक्षा करना उसे अपना कर्तव्य लगता है। समाज में व्याप्त भेदभाव उसे विचलित करते हैं।

डोरा की यूनिवर्सिटी का कैम्पस एक ऊँचे भू-भाग पर बसा है। कहानी में ऊपर की चट्टान, ऊँचा भू-भाग रूपक है। यह सब देशों में सब स्थानों में होता है। अच्छी और ऊँची ज़मीन धनी-मानी और उच्च वर्ग के लोग हथिया लेते हैं। नीची भूमि ग़रीबों की बस्ती बनती है। “जैसा कि अक्सर शहरों में होता है अमीरों की बस्ती के आसपास ही झुग्गी झोपड़ियों का इकट्ठा होना शुरू हो जाता है। न्यूयॉर्क के इस हिस्से का विकास इस नज़रिए से काफ़ी दिलचस्प और कुछ अपने ढंग का ही है जिसमें हारलम और अभिजात वर्ग का एक उच्चतम शिक्षण संस्थान, दोनों की ही सीमाएँ शामिल हैं, दोनों ही एक साथ फ़ूलते फलते हैं।”7 निचले भू-भाग पर ग़रीबों अर्थात कालों की बस्ती है। दोनों रिहाइशों के बीच एक पार्क है। पार्क में जगह-जगह पर बनी सीढ़ियाँ ऊपर-नीचे आने-जाने के काम आती हैं। अधिकांश अमीरों के मन में काले लोगों के प्रति अविश्वास है। उन्हें लगता है कि ये लोग चोर-उचक्के हैं और मौक़ा लगते ही छिनतई करते हैं। ज़रूरत पड़ने पर हत्या भी कर सकते हैं। जब-जब कोई अप्रिय घटना घटती है, कैम्पस में प्रमुख स्थानों और दरवाज़ों पर सावधान की नोटिस लग जाता है। सब ख़ूब चौकन्ने हो जाते हैं। कुछ दिन पहले एक प्रोफ़ेसर का बटुआ छिन गया था तो ऐसी ही सूचना चिपकी थी। जबकि सच्चाई यह थी कि प्रोफ़ेसर ने देखा नहीं था कि उनका बटुआ और थैले किसने छीने थे। मगर मान लिया गया था कि छिनतई का काम कालों के अलावा कोई और नहीं कर सकता है। डोरा भी दो-एक बार ऐसी अप्रिय वारदातों से परेशान हो चुकी है। फिर भी मनुष्यता पर से उसका विश्वास उठा नहीं है।

यहाँ कहानी में एक दिलचस्प बात बताई गई है। चोरी भी ख़ास मौसम में होती है और उसका ख़ास कारण भी होता है। “ज़्यादातर ये चोरी चकारी गर्मियों में होती थी क्योंकि सर्दियों में एक तो पेड़ नंगे हो जाते हैं सो परदा नहीं रहता है। दूसरे बर्फ़ गिरी होती तो भागने में भी न तेज़ी रहती है, गिरने का ख़तरा अलग। सो पुलिस तो बहुत जल्द क़ाबू कर सकती है। गर्मियों में बाहर मौसम सुहावना होता है तो तफ़रीह के लिए बाहर निकलना ही होता है।”8 गर्मियाँ चोरी करने के लिए मौजू मौसम है कारण, “जब गर्मी लगती है तो खुराफ़ातों के लिए भी मन मचलता है और एक बार मन मौज में आ गया तो फिर जिस की भी शामत आ जाए!”9

जातीय श्रेष्ठता का नतीजा हम द्वितीय विश्वयुद्ध में देख-भोग चुके हैं। स्वयं को उच्च और दूसरों को निम्न और हेय मानने की प्रवृति आज भी क़ायम है। डोरा की बिल्डिंग में ही एक भारतीय महिला पद्मा रहती है। वह उच्च शिक्षा प्राप्त है और बॉयलॉजी पढ़ाती है। वह स्वयं को “गोरों जैसा ही समझती थी। उन्हीं से मिलती-जुलती थी और ख़ुद को उन्हीं के साथ जोड़ कर देखती थी।”10 और तो और गोरों का अपनापन हासिल करने के लिए कालों के खिलाफ़ हो जाती। काले लोगों के प्रति उसके विचार में “इनका न तो कोई ठौर ठिकाना होता है, न कोई वैल्यूज़। माँ बाप ख़ुद ड्रग्स और शराब में पड़े रहते हैं तो बच्चों को क्या सिखाएँगे।”11 पद्मा ख़ुद साँवली है पर ख़ुद को कालों से बहुत श्रेष्ठ समझती है। लेखिका ने दिखाया है कि प्रवासी भारतीय कई बार अपनों से मिलने में, उनसे संबंध रखने में हीनता मानता है और उनसे दूर रहने, ख़ुद को उनसे श्रेष्ठ मानने दिखाने की चेष्टा करता है। अपनी हीन भावना छिपाने के लिए वह उन्हें पहचानने से इंकार करता है, गाहे-बेगाहे उन्हें नीचा दिखाने से भी बाज़ नहीं आता है। (प्रवासी कहानीकार अचला शर्मा भी अपनी कहानी ‘रेसिस्ट’ में ऐसा ही दिखाती हैं।) पद्मा शिक्षित है और जीवविज्ञान पढ़ाती है। कम से कम उसे तो ज्ञात होना चाहिए कि काली या गोरी चमड़ी किसी को उच्च नस्ल या निम्न नस्ल का नहीं बनाती है। असल में उसके लिए शिक्षण मात्र एक जॉब है जिसका जीवन से कुछ लेना-देना नहीं है। यहाँ अपर्णा सेन की फ़िल्म ‘मिस्टर एंड मिसेज अय्यर’ की याद आती है। इस फ़िल्म में नायिका बहुत पढ़ी लिखी है मगर छूआछूत मानती है। सच डिग्री मिलने से ही आदमी शिक्षित नहीं हो जाता है। डिग्री और संस्कार दो अलग बातें हैं। 

एक दिन डोरा ने स्टोर से काफ़ी ख़रीददारी कर ली तो सामान उठाने के लिए उसे वहीं से एक काला लड़का मिल गया। चढ़ाई चढ़ते हुए रास्ते में वह उससे बातें करने लगी। वह लड़का उसे काफ़ी मेधावी और मेहनती लगा। बातचीत में पता चला कि वह पढ़-लिख कर आगे बढ़ कर अपनी ग़रीब स्थिति सुधारना चाहता है। उसकी माँ भी उसे आगे पढ़ाना चाहती है। लड़के की मासूमियत और जिज्ञासु प्रवृति डोरा को भा जाती है। जैस्सी में आगे बढ़ने की ललक को देखते हुए मानवता के नाते डोरा उसकी सहायता करना चाहती है। अपने घर की साप्ताहिक साफ़-सफ़ाई के लिए उसे काम देती है। वह ख़ूब मेहनत और ईमानदारी से काम करता है। लेकिन पद्मा जैसे लोग यह सहन नहीं कर पाते हैं। उनके मन में भय है। उसे लगता है कि ये काले लड़के अवश्य उन लोगों को नुक़सान पहुँचाएँगे। पद्मा पहले डोरा को समझाती है। डोरा उसे बताती है, “वह हाई स्कूल में पढ़ता है। बड़ा ईमानदार लड़का है। बहुत विनम्र, काम पसंद करने वाला और सभ्य।”12 कहानी में एक बात खटकती है जब लड़के का नाम पता चल गया उसके बाद भी उसे लड़का ही संबोधित किया जाता है। जबकि होना यह चाहिए था कि उसका नाम लिखा जाता। नाम से उसको संबोधित किया जाता। नाम व्यक्ति को पहचान देता है। व्यक्ति समूह अथवा जाति-नस्ल का प्रतिनिधित्व कर सकता है।

पद्मा को लगता है कि डोरा सबके लिए मुसीबत खड़ी कर रही है। वह कहती है, “देखिए आप ख़ुद को तो ख़तरे में डाल ही रही हैं, हम सबको भी ख़तरे से एक्सपोज़ कर रही हैं। कल को यहाँ किसी के घर में घुसकर चोरी करने लगा या किसी पर हमला कर दिया तो आप क्या कर लेंगी?13 पद्मा प्रोफ़ेसर के साथ हुई दुर्घटना का उदाहरण दे कर अपनी बात को सही साबित करना चाहती है। लेकिन जब देखती है कि डोरा पर उसकी बात का असर नहीं हो रहा है तो उस समय चली जाती है। मगर बाद में सोसायटी में शिकायत करती है। नतीजा होता है कि उस लड़के का कैम्पस में आना बंद कर दिया जाता है। डोरा को नोटिस मिलता है, “इमारत के रेज़ीडेंट्स की सुरक्षा हम सब की सामूहिक ज़िम्मेदारी है। किसी अनजान व्यक्ति को इमारत में घुसने देना विपत्ति को आमंत्रित करना है। ऐसे क़िस्से आम देखे गए हैं कि किसी बहाने से अनपहचाने लोग इमारत के अंदर आ जाते हैं और रहने वालों की सुरक्षा पर सवाल लग जाता है। आपसे निवेदन किया जाता है कि आगे से किसी ऐसे व्यक्ति को इमारत में आने से रोकें।”14 उसकी शिकायत हो चुकी थी और फ़ैसला भी सुनाया जा चुका था।

इस घटना से डोरा बहुत आहत होती है, सोचती है, “या तो सिर्फ़ चट्टान के ऊपर रहा जा सकता था, या चट्टान के नीचे। क्या निचले वाले ऊपर के जीवन के भागी कभी नहीं होंगे! या ऊपर वाले चट्टान के नीचे बह रहे जीवन के?”15 वह सदा सोचती कि इस स्थिति का कुछ इलाज होना चाहिए। अपरिचय भय उत्पन्न करता है, एक बार परिचय हो जाए तो भय दूर हो जाता है, संवेदना जाग्रत होती है। किसी के प्रति संवेदना होने के लिए उससे जान-पहचान होना, उससे घुलना मिलना आवश्यक है। इसीलिए डोरा सोचती है, “डरते हैं लोग, जिनसे हमेशा हमले का ख़तरा रहता है, उनसे घुला मिला जाए, दोस्ती की जाए तो क्या फिर भी यही स्थिति रहेगी? अगर वे भी ऊँचे समाज की संपन्नता के भागीदार हो सकें तो क्यों नफ़रत करेंगे वे।”16 अभी सारे छोटे काम उनसे करवाए जाते हैं, “य़ूनिवर्सिती में भी सफ़ाई, सेक्योरिटी के सारे काम कालों ने ही सँभाले हुए हैं…गोरे हों चाहे एशियाई, बढ़िया नौकरियाँ तो ख़ुद हजम कर जाते हैं।”17 कहानीकार बौद्धिक जगत का कच्चा चिट्ठा खोलती है, “सारी एकैडेमिक दुनिया में गंदगी फैलाई हुई है। दूसरों का गला घोंट कर अपनी नौकरी पक्की करते हैं।”18 हम स्वार्थ के कारण कितने नीचे गिर जाते हैं, दूसरों का हक़ छीनने में कोई संकोच नहीं करते हैं।

डोरा की सोच भिन्न है। वह अन्याय को सहन नहीं करती है उसके विरुद्ध आवाज़ उठाती है। पूर्व में उसने ऐसा किया है, इस बार भी “वह ख़ामोश नहीं बैठी रहेगी। कल ही यूनिवर्सिटी के प्रेसीडेंट को ख़त लिखकर विरोध करेगी।”19 “लिखने के माध्यम से ही जीवन के अर्थ तलाशती”20 सुषम बेदी ने जागरूकता पैदा वाली कहानी लिखी है। आज जब हम मानव अधिकारों की बातें करते हैं तो इसे कार्य रूप में परिणत करने की भी आवश्यकता है। सिर्फ़ नियम-क़ानून बनाने से कोई बदलाव नहीं आएगा। डोरा मात्र सिद्धांत में नहीं जीती है वह सिद्धांत को कार्यरूप में भी परिणत करती है तभी तो वह एक काले लड़के पर विश्वास करके उसे अपना काम सौंपती है। वह पद्मा जैसे लोगों की बेसिर पैर की बातों पर विश्वास नहीं करती है। कहानी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर गिरने के बाद लिखी गई है। अमेरिका की इस जुड़वाँ इमारत पर हमला नफ़रत का फल था। घृणा से घृणा फैलती है। 

कहानी का परिवेश प्राकृतिक सुषमा से भरपूर है। इस स्थान का ऐतिहासिक महत्व भी है। “पार्क के साथ लगी यह सड़क तो लगभग ढ़ाई सौ साल पुरानी है। एक बहुत बड़ा चर्च भी बना है जो हमेशा बनता ही रहता है या कहिए कि आज तक संपूर्ण (यहाँ संपूर्ण शब्द का प्रयोग उचित नहीं है मात्र पूर्ण शब्द का उपयोग होना चाहिए था। वि. श.) नहीं हुआ।”21 पार्क का सौंदर्य देखें: “वसंत में उन की डालियों पर नन्ही नन्ही कोंपलें खिल आती हैं और अलग-अलग क़िस्म के फ़ूलों से लद जाते हैं पेड़। गर्मियों में हरी हरी पत्तियों से ढके खूब घनी छाँव देते हैं, पतझड़ में पत्तों के रंग बदलते ही सारी सड़क रंगों की होली खेलने लगती है और सर्दियों में इनकी बेपर्द शाखाएँ बड़ी आकर्षक, लोचदार और लहरीली दीखती है। हवा में झूमती शाखाएँ जैसे संगीत की लहरों को आकार दे रही होती हैं।”22

मगर मानवीय रिश्तों की खाई के कारण लोग इस ऐतिहासिक स्थान की प्राकृतिक सुषमा का पूरा आनंद नहीं उठा पाते हैं। अभिजात वर्ग और निचली बस्ती के बीच का पार्क काले लोगों के ख़तरे से न भरा हो तो भी वहाँ अन्य ख़तरे हैं। यह पार्क नशीली दवा बेचने वालों का अड्डा है। पुलिस भी वहाँ जाने से घबराती थी। स्थान असुरक्षित है अत: यूनिवर्सिटी का प्रेसिडेंट इस इलाक़े को छोड़ कर शहर के एक सुरक्षित इलाक़े में रहता है। कहानी दिखाती है कि यूनिवर्सिटी वास्तुकला का श्रेष्ठ नमूना है, “ग्रीक वास्तुकला के नमूनों से होड़ करती यूनिवर्सिटी की इमारतें, जहाँ बहुत शांति से अध्ययन अध्यापन का कार्य संपन्न होता। यहाँ के विद्यार्थी और प्रोफ़ेसर देश में बड़े-बड़े ओहदों पर नियुक्त होते, विश्व में नोबुल पुरस्कार विजेता होते, बड़े-बड़े बिज़नसों के अधिकारी, संचालक निर्देशक होते और सारे देश की बागडोर सँभालने वालों में से होते।”23 मगर अपने आसपास के लोगों से मेलमिलाप नहीं रख पाते हैं। यह विडंबना है कि इतनी शिक्षा के बावजूद लोगों में मानवीय भावनाओं की कमी है। ये विद्वज्जन मनुष्य को मनुष्य नहीं समझ पाते हैं और मात्र रंग के आधार पर लोगों से भेदभाव बरतते हैं। 

एक और महत्वपूर्ण बात की ओर कहानी इंगित करती है। अमेरिका में गोरों के द्वारा कालों पर कई सौ साल अत्याचार-अनाचार हुआ है। अगर इस समय-समाज में हुए लोमहर्षक अमानवीय कारनामों को जानना-समझना है तो नोबेल पुरस्कृत साहित्यकार टोनी मॉरीसन का सारा साहित्य पढ़ना चाहिए कम से कम उनकी एक किताब ‘बिलवड’ अवश्य पढ़ी जानी चाहिए। एलेक्स हेली का ज़िक्र ऊपर हो चुका है। यह सारा अमानवीय व्यापार अश्वेतों की जातीय स्मृति में सुरक्षित है। “यह बरसों की गुलामी का इतिहास कब जाकर लोगों की स्मृति से मिटेगा!”24 इसके लिए समाज में और लोगों की सोच में आधारभूत परिवर्तन की ज़रूरत है। कहानी कामना करती है कि यह परिवर्तित हो जाए। कहानी प्रश्न भी पूछती है, “जिस विश्वास को बरसों के इतिहास ने खो दिया है, उसे अभी और कितने बरस लगने हैं ख़ुद को जमाने में?”25 डोरा इस दूरी को कम करने के लिए कटिबद्ध है।

कहानी ‘चट्टान के ऊपर, चट्टान के नीचे’ की नायिका डोरा जॉनसन और कहानीकार के जीवन में कई साम्य हैं। डोरा यूनिवर्सिटी में पढ़ाती है। आठ उपन्यास (हवन, लौटना, नवभूम की रसकथा, गाथा अमरबेल की, कतरा-दर-करता, इतर, मोर्चे, मैंने नाता तोड़ा) और दो कहानी संग्रह (चिड़िया और चील तथा सड़क की लय) की रचनाकार सुषम बेदी भी 1979 में अमेरिका आ गई और 1985 से न्यूयॉर्क की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में पढ़ा रही थीं। कहानी का लोकेल न्यूयॉर्क है। सुषम बेदी भारतीय हैं और न्यूयॉर्क में रहती हैं। डोरा भी लड़कों को बताती है, “मैं वहाँ रहती थी। जब बहुत छोटी थी। बाद में रिसर्च के लिए गई थी।”26 सुषम बेदी ने भी पंजाब यूनिवर्सिटी से पीएच.डी. की है। 

लेखिका ने छोटी-छोटी घटनाओं और वार्तालाप के द्वारा कहानी बुनी है। आलोचक नामवर सिंह कहते हैं, “जब मैं सार्थकता की बात करता हूँ तो इसका यह अर्थ है कि कहानी हमारे जीवन की छोटी से छोटी घटना में भी अर्थ खोज लेती है या उसे अर्थ प्रदान कर देती है।”27 इस दृष्टि से ‘चट्टान के ऊपर, चट्टान के नीचे’ एक सार्थक कहानी है।

संदर्भ:

  1.  एनकार्टा
  2. हेली, एलेक्स, ‘रूट्स’ ईबुक, डेल पब्लिशिंग, न्यूयॉर्क, आठवाँ मुद्रण, १९८२ तथा मुद्रित पुस्तक, विंटेज बुक्स, लंदन, १९९१
  3. एनकार्टा
  4. ढींगरा, सुधा ओम, बातचीत, गर्भनाल ३७ दिसंबार २००९, सं. यतेन्द्र वार्षनी, मासिक, भोपाल, इंटरनेट संस्करण पृष्ठ संख्या ५
  5. सुषम बेदी, ‘चट्टान के ऊपर, चट्टान के नीचे’, अन्यथा, जून २००८, पृष्ठ संख्या २५५
  6. वही, पृष्ठ संख्या २५९
  7. वही, पृष्ठ संख्या २५५
  8. वही, पृष्ठ संख्या २५७
  9. वही
  10. वही
  11. वही, पृष्ठ संख्या २५६
  12. वही
  13. वही
  14. वही, पृष्ठ संख्या २५९
  15. वही
  16. वही, पृष्ठ संख्या २५७
  17. वही, पृष्ठ संख्या २५८
  18. वही
  19. वही, पृष्ठ संख्या २५९
  20. ढींगरा, सुधा ओम, बातचीत, गर्भनाल ३७ दिसंबार २००९, सं. यतेन्द्र वार्षनी, मासिक, भोपाल, इंटरनेट संस्करण पृष्ठ संख्या ४
  21. सुषम बेदी, ‘चट्टान के ऊपर, चट्टान के नीचे’, अन्यथा, जून २००८, पृष्ठ संख्या ५५८
  22. वही
  23. वही
  24. वही, पृष्ठ संख्या २५७
  25. वही, पृष्ठ संख्या २५९
  26. वही, पृष्ठ संख्या २५५
  27. सिंह, नामवर, कहानी: नई कहानी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, २००५, पृष्ठ संख्या २४

डॉ. विजय शर्मा

वेब पत्रिका ‘साहित्यकुंज’ से साभार

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