स्मृति लेख | उषा राजे सक्सेना

स्तब्ध हूँ! यक़ीन नहीं हो रहा है….

एक हँसता-खिलखिलाता, बेहद प्यारा, ज़िंदादिल इंसान गुज़र गया ….
अभी 4-10 नवम्बर 2019 को हम सब प्रवासी भारतीय साहित्यकार सुषम जी के साथ ‘टैगोर अंतर्राष्ट्रीय साहित्य कला महोत्सव- भोपाल’ में कला और साहित्य पर बात-चीत करते हुए, सत्रों में शिरकत कर रहे थे। हर रोज़ हँसते खिलखिलाते, चुटकियाँ लेते, कभी सुबह नाश्ते पर, कभी लंच पर, कभी पुस्तक प्रदर्शनी देखते तो कभी सभागार में साथ-साथ घूमते-फिरते जगह-जगह रुक कर फोटो खिचाते। हम सब देश-विदेश से आए तमाम साहित्यकार शाम को अनौपचारिक महफ़िलें सजाते. गीत, ग़ज़ल, कविता का समां होता और समां को जीवंत करता सुषम जी का सुर, लय, ताल और अभिनय के साथ ‘मधुमति’ फ़िल्म का प्रिय गीत ‘दैय्या रे दैय्या चढ़ गयो पापी बिछुआ’ …. न जाने कितनी स्मृतियाँ आँखों के आगे तैरने लगती हैं..… क्या पता था कि यह हमारी आख़िरी मुलाक़ात होगी। इस तरह सुषम जी हम सब को छोड़ कर चली जाएँगी….. 

सुषम जी से मेरी मुलाक़ात उनकी अनुपस्थिति में सबसे पहले उनके कहानी संग्रह ‘चिड़िया और चील’ से हो चुकी थी। बात संभवतः 1990 के दशक की है जब एक बार मैं अपनी छोटी बहन डॉ. स्वर्ण लता और डॉ. विजय श्रीवास्तव के आवास में ठहरी थी। दोनों वाराणसी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे।

उस समय आमतौर पर मैं कविताएँ लिखा करती थी परंतु कभी-कभी कहानियों पर भी क़लम चला लेती थी। ‘एक मुलाक़ात’, ‘शुक़राना’, ‘दायरे’, ‘क्लिक’, ‘यात्रा में’ आदि कहानियाँ पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी थीं। अतः क्रिसमस की छुट्टियों में जब वाराणसी गई तो कुछ पत्रिकाएँ साथ लेती गई थी…. तभी विजय ने मेरी कहानियों की संस्तुति करते हुए ‘चिड़िया और चील’ की प्रति मुझे पढ़ने को दी..

उस रात मैंने सोने से पूर्व शीर्षक कहानी ‘चिड़िया और चील’ पढ़ी। कहानी ने मेरी रात की नींद उड़ा दी। क्या ज़बरदस्त बिंब बनाती है ‘चिड़िया और चील’ शीर्षक। कहानी की सशक्त बुनावट संवाद तथा कथा-वस्तु ने दिमाग़ के नस-नस को झकझोर दिया। प्रवासी भारतीय जीवन की समस्याओं, संघर्षों और विडंबनाओं का क्या बिंदास चित्रण है। मैं स्वयं प्रवासी थी और लिख भी रही थी। पहली पीढ़ी के हर प्रवासी भारतीय घर में ‘चिड़िया और चील’ या उससे मिलती-जुलती तमाम समस्याएँ माँ-बाप को आतंकित कर रही थी। कहानी में आए सांस्कृतिक, सामाजिक और नैतिक मूल्यों के क्षरण का ‘डर’ एक वक़्त, ख़ुद मेरे, मेरे मित्रों क्या समस्त प्रवासी भारतीय समाज को उद्वेलित कर रहा था। हम अपनी महत्वाकांक्षाओं और आगे बढ़ने की चाह में कितना कुछ बहुमूल्य खोते जा रहे हैं। उस समय ऐसा भी हो रहा था कि एक-आध प्रवासी परिवार बच्चों की प्राईमरी शिक्षा के समाप्त होने के बाद वापस लौट गए थे क्यों कि वे प्रवास में पल रहे बच्चों के स्कूली शिक्षा, भावनात्मक विकास, स्वतंत्र सोच और ‘पीयर-ग्रुप प्रेशर’ से ताल-मेल नहीं बैठा पा रहे थे। रात भर ‘चिड़िया और चील’ शीर्षक की ‘इमेज’ कथावस्तु, संवाद, सिचुएशन, दिमाग़ के नस-नस को झकझोरते रहे। मेरे मन में बाक़ी की भी कहानियों को जल्दी से जल्दी पढ़ने की इच्छा बलवती हो रही थी। सुबह वाराणसी से गोरखपुर के लिए प्रस्थान करना था। अतः विदा लेते समय विजय को धन्यवाद देते हुए साधिकार कहा ‘चिड़िया और चील’ मैं अपने साथ ले जा रही हूँ विजय….. 

इस तरह मेरी सबसे पहली मुलाक़ात सुषम जी से उनकी अनुपस्थिति में उनकी कहानियों के माध्यम से हुई थी….. ‘ओह! कितनी प्रभावशाली कहानियाँ थीं, कितनी सच, दिन-प्रति-दिन के जीवन के कितने क़रीब, कितनी वास्तविक, कितनी हृदयग्राही, कितनी संवेदनशील’… मैं उनकी कहानियों के बिंबात्मक शीर्षकों से बेहद प्रभावित रही हूँ जैसे- ‘चिड़िया और चील’, ‘अज़ेलिया के फूल’, ‘सड़क की लय’, ‘काला लिबास’ आदि। बाद में कभी मिलने पर मैंने उनके बिंबात्मक शीर्षकों के बारे में पूछा तो उन्होंने ख़ुलासा किया कि कहानी का शीर्षक कहानी का केंद्र बिंदु होता है। वही कहानी की धूरी होती है और कहानी उसके चारों ओर बुन जाती है।

मैं सुषम जी से मिलने और बहुत कुछ जानने और सीखने के लिए बेचैन हो रही थी. सुषम जी तबतक देश-विदेश में हिंदी साहित्यकारों के बीच एक प्रतिष्ठित प्रवासी लेखिका की ख्याति प्राप्त कर चुकी थीं। ‘हवन’ की चर्चा पत्र-पत्रिकाओं में ज़ोर-शोर से हो रही थी। उभरते हुए प्रवासी लेखक- लेखिकाओं की वे आदर्श बन चुकी थीं। भारतीय विश्वविद्यालयों के छात्र सुषम बेदी शोध ग्रंथ आदि लिख रहे थे। 

लंदन आने के बाद सुषम जी को पत्र लिखा पर उसका जबाब नहीं आया…. मैंने उनका उपन्यास ‘हवन’, ‘लौटना’ और ‘नव भूम की रसकथा’ पढ़ा। क्या ग़ज़ब की पकड़ थी उनकी, प्रवासी समाज, उसकी बुनावट और उनके सूक्ष्म से सूक्ष्म आंतरिक द्वंद्वों, विचलनों, विडंबनाओं और संघर्षों पर……

मेरी सबसे पहली आमने-सामने वाली मुलाक़ात सुषम जी से नेहरू केन्द्र में यू.के. हिंदी समिति की गोष्ठी में हुई हुई थी। उन्हें देखते ही उनकी कहानी ‘अज़ेलिया के रंगीन फूल’ याद आ गई। अज़ेलिया के फूलों की तरह खिला-खिला व्यक्तित्व था उनका। चलने-फिरने और बात करने के अंदाज़ में संगीत की एक लय थी जो उनके व्यक्तित्व को आकर्षक बनाती थी। जब हमारा परिचय कराया गया तो छूटते ही उन्होंने कहा, ‘लीजिए उषा राजे जी आपके पत्र के जवाब में मैं ख़ुद हाज़िर हो गई।’ उन्होंने मुझे उलाहना देने का अवसर नहीं दिया। खुला हुआ, दोस्ताना और स्नेहपूर्ण व्यक्तित्व था उनका।

गोष्ठी का विषय था ‘विदेशों में लिखा जा रहा हिंदी साहित्य और उसका मूल्यांकन’। गोष्ठी में उन्होंने कई बातें स्पष्ट कीं जो विदेशों में रह रहे लेखकों के लिए बहुत महत्वपूर्ण थीं। पहली बात जो उन्होंने रेखांकित की वह यह कि विदेशों में जो लोग लिख रहे हैं उन्हें अच्छी और समकालीन हिंदी साहित्य पढ़ने के नहीं मिल पा रहा है। लेखन के लिए पढ़ना बहुत आवश्यक है। उसके लिए हमें क्या करना चाहिए? सवाल किया उन्होंने। दूसरी बात जो उन्होंने रेखांकित किया वह यह कि भारत की पत्र-पत्रिकाएँ और प्रकाशक यहाँ लिखे जा रहे साहित्य को ‘प्रवासी साहित्य’ के खांचे में डाल उसे हाशिये पर रखते हैं क्यों कि उनका मानना है कि विदेशों में लिखा जा रहा साहित्य नॉस्टैलजिक और दोयम दर्ज़े का है। तीसरी बात जो उन्होंने रेखांकित किया वह यह कि भारत में साहित्यकारों के बीच खेमेबाज़ी बहुत है। वहाँ साहित्यिक महंत और मठाधीष बैठे हैं जिनके इशारे पर भारतीय हिंदी साहित्य गति-विधियाँ संचालित होती हैं। चौथी जिस बात को उन्होंने रेखांकित किया वह यह कि हिंदी के किताबों का बाज़ार पैदा होना चाहिए जैसा कि अंग्रेज़ी साहित्य में हो रहा है और यह काम प्रकाशक ही कर सकते हैं। आगे उन्होंने कहा हमारे भारतीय प्रकाशक बिकाऊ पुस्तक छापते हैं। लेखक यदि पैसे देता है तो वे कूड़ा कर्कट भी छाप देते हैं… कहते हुए वे हँस पड़ी थीं और रॉयल्टी की तो बात ही मत कीजिए लेखकों को अपनी पुस्तकें भी प्रकाशकों से ख़रीदनी पड़ती हैं…. 

सुषम जी का व्यक्तित्व सहज, सरल था। उनका लहज़ा दोस्ताना था किंतु वे स्पष्ट और बिंदास थीं। वे बतरस का शौकीन थीं। अध्यापक थीं न अतः उनके पास कहने और समझाने को बहुत कुछ था। सभा और साक्षात्कारों में उनके बोलने की शैली, सोचते हुए किंतु एक सधे हुए ख़ास अंदाज़ में लय के साथ बोलने की थी मानों ज़ेहन में तरतीब से रखे हुए भावों को बेहद क़रीने से निकाल कर परोस रही हों। सुषम जी एक बिंदास वक्ता होने के साथ-साथ बेहद ज़िंदादिल और बेहद प्यारी शख़्सियत थीं। कितनी स्मृतियाँ आँखों के सामने तैर रही हैं। एक बार कोई बात चली तो उन्होंने सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यास ‘मुझे चाँद चाहिए’ का उदाहरण देते हुए कहा कि यह उपन्यास कोई ऐसा विशेष नहीं है परंतु उसकी मार्केटिंग इस तरह के व्यवस्थित ढंग से हुई कि उपन्यास पूरे भारत में छा गया। और 1996 में उसे साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिल गया। 

1995-97 के बीच सुषम जी अपने पति डॉ. राहुल के साथ अक्सर लंदन आया करती थीं। आमतौर पर वे रीजेन्टस पार्क होटल या लंदन विश्व विद्यालय के होस्टल में ठहरती थीं। एक बार गिर पड़ने से उन्हें फ़्रैक्चर हो गया था। मुझे पता चला तो मैं दो-तीन दिन लगातार अन्डर-ग्राउंड ट्रेन लेकर रीजेन्टस पार्क पहुँच जाती। हम लोग टहलते-बेंच पर बैठे देर तक बातें करते थे। लंदन के बारे में, लंदन के साहित्यकारों के बारे में, अमेरिका के साहित्य के बारे में अपने साहित्य के बारे में। 

मेरे पूछने पर अपने सर्जन के क्षणों के बारे में उन्होंने बताया कि जब उनका दिलो-दिमाग़ लिखने की तैयारी कर रहा होता या लिख रही होती हैं तो उन्हें लेखन के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिए होता है। और वह वक़्त उनके घर-परिवार के लिए बहुत अच्छा समय नहीं होता है। वे चिड़चिड़ी और अधीर हो जाती हैं। उन्हें उस समय अपनी निजता और परिवार दोनों चाहिए होता है। राहुल जी को-ऑपरेट करते हैं। वे उन लेखकों की तरह क़तई नहीं हैं जो परिवार से दूर किसी निर्जन स्थान पर जा कर लिखते हैं। वास्तव में घर का वातावरण और परिवेश ही उन्हें लिखने की ऊर्जा देता है।

कहानी के विषय-वस्तु और ट्रीटमेंट के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि कहानी उन्हें खोजनी नहीं पड़ती है। वह उनके परिवेश और सामाजिकता में डोलती रहती है, बस एक ख़ास समय में उनके अंदर एक ख़ास ‘पकड़’ याने दृष्टि पैदा हो जाती है जो उन्हें उद्वेलित करती रहती है और पकने के बाद वही उनके लेखन की सामग्री बन जाती है।

सुषम जी कोलंबिया विश्वविद्यालय में हिंदी की प्राध्यापक थीं। उनके छात्र विदेशी और प्रवासी भारतीय नवजवान दोनों होते थे। विश्वविद्यालय में पढ़ाने के कारण वे भारतीय और विदेशी नवजवान छात्रों के जीवन-यापन उलझनों, गुत्थियों से लेकर ‘आइडेंटिटी क्राइसिस’, ‘आर्थिक क्राइसिस,’ ‘फ़ैमिली क्राइसिस’ ‘सेक्सुअल क़ाइसिस’ की समस्याओं, विडंबनाओं और संघर्षों से रोज़ ही दो-चार होती थीं। विदेशों में एक शिक्षक को छात्रों को पढ़ाने के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक, साइकैट्रिस्ट और वक़्त पड़े तो फ़ैमिली काउन्सिलर का कार्य भी करना पड़ता है। सुषम जी की एक ख़ासियत थी कि वे किसी से भी जल्दी ही रिलेट कर लेती थीं। यही कारण है कि उनके छात्र, उनके पाठक उनके साहित्य से उनकी कहानियों से ख़ुद को रिलेट कर लेता है और यही एक अच्छे साहित्यकार और साहित्य की कसौटी है।

सुषम एक बेहद सचेत, संवेदनशील और प्रतिष्ठित साहित्यकार थीं। वे देश-विदेश में ख़ूब पढ़ी गईं, ख़ूब चर्चित हुई, ख़ूब जन-प्रिय हुईं। उन्हें ख़ूब आदर-सम्मान मिला। सुषम जी को विभिन्न संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों ने पुरस्कृत एवं अलंकृत किया गया। विशेष सम्मान उन्हें ‘उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान- लखनऊ- हिंदी साहित्य सेवा सम्मान’ एवं ‘आगरा हिंदी संस्थान’ से ‘पद्म भूषण श्री सत्यनारायण मोटुरी पुरस्कार’ उनके साहित्यिक अवदान के लिए दिया गया। दिल्ली की संस्था अक्षरम् ने उन्हें ‘साहित्य अकादमी तथा अक्षरम्’ सहित्यिक योगदान के सम्मान से अलंकृत किया। विभिन्न विधाओं में अब तक उनकी 17 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 9 उपन्यास, 4 कहानी संग्रह, 2 कविता संग्रह 1 निबंध संग्रह, 1 पुस्तक आलोचना के क्षेत्र पर। 

सुषम जी के अनुभव बहुत गहरे थे। वे अपने अनुभवों को कहानियों और उपन्यासों में ड्राफ़्ट करने में प्रवासी लेखकों के बीच मास्टर राईटर्स की श्रेणी में आ चुकी थीं। उनकी कहानियाँ उपन्यास कई भाषाओं में अनूदित हो चुके हैं। उनका ‘मास्टरपीस’ उपन्यास ‘हवन’ पंजाबी, गुजराती, कन्नड़, मलयालम उर्दू, अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, स्पैनिश भाषाओं में अनूदित हो चुके हैं। उनके दर्जनों विस्तृत साक्षात्कार ‘यू-ट्यूब’ पर देखे जा सकते हैं। 

‘सुषम बेदी कुछ भूलती नहीं है।’ कुछ ऐसा ही एक बार उन्होंने ने किसी साक्षात्कार में भी कहा था किसी प्रसंग के आने पर। उनके पास ‘लौंग’ और ‘शॉर्ट’ ‘मेमोरी’ के साथ ज़बरदस्त ‘फोटोग्राफिक मेमोरी’ भी थी जिसका पूरा सदुपयोग वे अपने लेखन में करती थीं। लेखन उनकी ज़रूरत थी। वे कहा करती थीं उन्हें निजता चाहिए, प्रकृति का साहचर्य उन्हें लिखने को प्रेरित करता है परंतु लेखन के लिए उन्हें अपना पारिवारिक और सामाजिक जीवन याने कि लिखते समय थोड़ा तनाव-दबाव और हलचल भी होना चाहिए होता था।

कुछ वर्ष पूर्व जब हम दोनों को विल्सन कॉलेज – मुंबई में उषा रानावत के निमंत्रण पर होटल के एक ही कमरे में तीन दिनों तक ठहरने का अवसर मिला तब मैंने जाना वे कितना अच्छा और सधे हुए अंदाज़ में गाती हैं। सुबह उठते ही सूरज की पहली किरण के साथ सुषम जी गुनगुना शुरू कर देती थीं। और फिर एक रोज़ शाम को जब उषा रानावत के साथ हम लोग पृथ्वी थिएटर से नाटक देख कर लौटे तो उन्होंने बताया कि उनका पहला प्यार ऐक्टिंग, संगीत और नृत्य हुआ करता था। हम लोगों के इसरार पर सुषम जी मूड में आ गईं और उन्होंने अपनी मन पसंद कई गीत जानदार अभिनय के साथ सुनाये। 

अभी पिछले वर्ष अक्तूबर 2019 में हम सब 4-10 नवम्बर को ‘टैगोर कला महोत्सव- भोपाल‘ में निमंत्रित हुए थे। मैंने सुषम जी को लंदन से अमेरिका फोन किया पूछा, ‘सुषम जी, ‘विश्व-रंग महोत्सव- भोपाल’ चल रही हैं न।’ 

‘कुछ सेहत ठीक नहीं चल रही है। कुछ कह नहीं सकती।’

मैंने कहा, ‘अरे! सुषम जी, ऐसा मत कहिए, पहली बार ऐसा हो रहा है कि हम प्रवासी भारतीयों को इतने मान-सम्मान से निमंत्रित किया जा रहा है साथ ही आने-जाने के एयर-टिकट के साथ रहने का प्रबंध लगभग फ़ाइव स्टार होटल में हो रहा। हम लोग सब एक ही साथ रहेंगे। आपका तो बहुत ही हाई प्रोफ़ाइल रहेगा। एक पूरा सेशन आपके लिए रिज़र्वड होगा।’ 

वे खिलखिला कर हँसीं, कहने लगीं, ‘अच्छा देखती हूँ।’…..फिर सुषम जी, जब होटल के ब्रेक-फ़ास्ट हॉल में आईं तो हुए हँस कर बोलीं, ‘लीजिए उषा जी आ गई मैं…’ 

मेरी क़लम रुक ही नहीं रही है। एक के बाद एक स्मृतियों का रेला नज़रों के आगे से गुज़रता जा रहा है, कितनी प्यारी और अज़ीज़ शख्सियत थी सुषम बेदी। काश! जाने से पहले विदा के अंदाज़ में हम गले मिल लेते तो कुछ सुकून रहता………..

उषा राजे सक्सेना

वेब पत्रिका ‘साहित्यकुंज’ से साभार

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