रेखा सेठी से सुषम बेदी की बातचीत

प्रवासी साहित्य का नाम लेते ही हिंदी में जो नाम सबसे पहले याद आता है, वह सुषम बेदी का है। अमेरिका में रहने वाली सुषम जी हिंदी की सुविख्यात रचनाकार हैं। सुषम जी का आग्रह अपनी पहचान को प्रवासी साहित्य तक सीमित करने की अपेक्षा हिंदी साहित्य या भारतीय साहित्य की यदि कोई मुख्यधारा है, तो उसके अंतर्गत रखे जाने का रहा है। भारतीय पहचान उनके लेखन में प्राण वायु की तरह बसती है। उनकी अधिकांश कहानियों और उपन्यासों की केंद्रीय पात्र स्त्रियाँ हैं, विशेष रूप से भारतीय स्त्रियाँ जो अपने मन व संस्कार से भारत के सांस्कृतिक परिवेश के करीब हैं लेकिन भौतिक जगत में अपने देश से दूर, अपने प्रवासी जीवन में एक तरह का विस्थापन झेल रही हैं। इस प्रक्रिया को सुषम जी ‘भारतीय मिट्टी में तैयार पौधे को दूसरी मिट्टी में रोप दिए जाने’ के रूप में देखती हैं। जिस बारीकी से वे अपने रचना संसार में परिस्थिति व मन:स्थिति या भाव-स्थिति के द्वंद्व को उकेरती हैं, वही चित्रण इन पात्रों को जीवंत बनाता है। उनकी बहुत-सी कहानियों एवं उपन्यासों का अनुवाद, अंग्रेज़ी, फ्रेंच तथा डच आदि भाषाओं में हुआ है। उनके पहले उपन्यास ‘हवन’ को विशेष ख्याति मिली।

उनके बीमार पड़ने तथा देहांत से पहले, नवम्बर 2019 में वे विश्वरंग में भाग लेने के लिए वे भोपाल आयीं थीं। उसी समय प्रवासी लेखन को लेकर रेखा सेठी से उनकी लम्बी बातचीत हुई।* उनको श्रद्धांजलि स्वरुप प्रस्तुत है उस बातचीत के मुख्य अंश। सुषम जी ने इस बातचीत में बड़े बेबाक ढंग से अपनी बात रखी है और प्रवासी साहित्य की विशिष्टता को रेखांकित करते हुए उसकी सीमाओं और संभावनाओं की पहचान की है….

रेखा सेठी : प्रवासी साहित्य की अलग पहचान, उसकी स्वीकृति या विकास के विषय में कुछ बताइए?

सुषम बेदी : एक तरह से मैंने प्रवासी साहित्य को पैदाइश से लेकर बढ़ते हुए और फलते फूलते देखा है और इसी इतिहास में उसका एक स्वरूप बनते हुए भी देखा है। अब यह स्वरूप क्या बना है इसकी चर्चा अलग से की जा सकती है। यहाँ, मैं तेजेंद्र शर्मा को इस बात का श्रेय दूँगी कि उन्होंने एक तरह से बेशर्मी की हद तक जाकर प्रवासी साहित्य की स्वीकृति की मुहिम चलाई। मैं खुद तो शमशेर जी के शब्दों में यही कहती रही कि ‘बात बोलेगी, हम नहीं/ भेद खोलेगी बात ही’ यानी कि हम अच्छा लिखेंगे तो साहित्य में खुद-ब-खुद हमें जगह मिलेगी। रशदी ने अपने लेखन के बूते पर ही अंग्रेज़ी  साहित्य में अपनी जगह बनाई या नयपाल ने।

      नब्बे के दशक में भारत में भी कुछ भारतीय पत्रकारों ने प्रवासी साहित्य पर विशेषांक निकाले। वर्तमान साहित्य ने 21वीं शताब्दी के पहले दशक में ही ऐसा अंक निकाला जिसमें बाहर से लिखने वालों की रचनाएँ  प्रमुखता से प्रकाशित हुईं। मुझे याद है मेरे उपन्यास ‘मैंने नाता तोड़ा’ का एक अंश उसमें छपा था। औरों की भी रचनाएँ थीं—कविताएँ और लेख भी थे लेकिन इतना होने पर भी हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार अभी भी प्रवासियों के लिखे को गंभीरता से नहीं लेते थे और उसे दोयम दर्जे का लेखन ही मानते थे। यह एक बड़ी समस्या थी।

प्रश्न : आपकी इस पर क्या राय है?

उत्तर : अगर मैं भारतीय और प्रवासी साहित्य की तुलना करना चाहूँ और उनके अंतर को देखना चाहूँ तो प्रवासी साहित्य के विषय और सरोकार भारतीय साहित्य के सरोकारों से अलग होंगे। प्रवासियों की मुख्य समस्या उनके विस्थापन की तकलीफ है। उसकी अस्मिता के झगड़े, विदेशी ज़मीन पर उसका अनजाना और अकेला रह जाना है। उसकी पीड़ा भारत की मूल समस्याओं जैसे आर्थिक अभाव या स्त्री उत्पीड़न की नहीं है। कुछ समानताएँ भी देखी जा सकती हैं जैसे घरेलू हिंसा के मसले पर लेकिन धार्मिक हिंसा या जातिवाद के मुद्दों से यहाँ की समस्याएँ कुछ अलग हैं। यहाँ की मुख्य समस्या सूनापन और अकेलापन है। उसकी रंगत और भी अलग है। भारत में अक्सर अकेलापन चुनाव होता है, जबकि यहाँ एक मजबूरी है। आप चाहें भी तो या तो आपको उनसे जुड़ना नहीं आता और यहाँ के समाज के लिए आप अजनबी बने रहते हैं।

     इसी तरह यहाँ की गरीबी की रंगत भी अलग है। एक तरफ है सुधा ओम ढींगरा की कहानी ‘सूरज क्यों निकलता है’ जहाँ गरीबी उसका अपना चुनाव है जबकि दूसरी तरफ है ‘गोदान’ का होरी जिसके पूरे जीवन में गरीबी से कोई त्राण नहीं है। आज भी भारत में किसानों की आत्महत्या एक सचाई है। इसी तरह स्त्री-उत्पीड़न में शिवमूर्ति की कहानी ‘तिरिया चरित्तर’ जहाँ एक औरत सताई जाती है और समाज उत्पीड़क का साथ देता है। उस कहानी में जो स्थिति पैदा होती है, वह भारत की ख़ास स्थिति है। वह किसी का द्वार नहीं खटखटा सकती। भारत में  स्त्री संबंधी अपराधों के दौरान पुरुष, महिलाओं को ही बदनाम करते हैं।

यह अंतर केवल भारत के लेखन और प्रवासी लेखन के अंतर का ही नहीं है। प्रवासी लेखन के अंतर्गत ही अगर ध्यान से देखें तो अमेरिका में लिखने वालों की कहानियाँ अलग होंगी, इंग्लैंड में रहकर साहित्य रचने वालों की कहानियाँ अलग और डेनमार्क में बसी अर्चना पैनयुली का सृजन इन सब में सबसे अलग है। चाहें वहाँ भी सवाल आईडेंटिटी या अपनी पहचान का ही है। पहचान का सवाल हर देश के प्रवासी साहित्य में बहुत खासकर यूरोप और अमेरिका में हमेशा अहं रहा है। ब्राउन रंग होने की वजह से यहाँ आप दोयम दर्जे के रहते हैं, चाहें अपने मूल देश में आप कितने भी अभिजात हों। मेरा उपन्यास ‘लौटना’ इसी दर्द के आसपास मीरा की अपनी पहचान की तलाश की कहानी है।

प्रश्न: जैसा आप कह रही हैं प्रवासी लेखन और भारत के लेखकों की समस्याएँ अलग हैं तो फिर प्रवासी साहित्य में भाव तथा मन:स्थिति के स्तर भारतीय संस्कृति के प्रति अभिन्नता का भाव कैसे है?

उत्तर : प्रवासी लेखक के ज़ेहन में भारत और अमेरिका या जो भी दूसरा देश उन्होंने अपनाया है, दोनों ही रहते हैं। दोनों ही उसकी चेतना के अनिवार्य अंग बने रहते हैं और एक तुलनात्मक दृष्टि भी बनी रहती है। उसके चित्र इन दोनों कल्पनाओं के ठोहके लगाते चलते हैं। चाहें यह अनजाने ही होता है। अंतत: वे उस मानवता को ही अपनाना चाहते हैं जो कि सारी संस्कृतियों से ऊपर हो। उसके संदर्भ के रूप में दोनों बने रहते हैं, उदाहरण के लिए मेरे उपन्यास ‘मैंने नाता तोड़ा’ को लें, उसकी नायिका ऋतु बलात्कार के अपने भारतीय अनुभव की सताई हुई है। एक ओर वह आत्मगर्हणा से मुक्त नहीं हो पाती, अपने परिवार अपने माँ-बाप द्वारा पहुँचाये गए दंश नहीं भूल पाती, वहीं उसका अमरीकी अनुभव बहुत हद तक इस तकलीफ से उसे राहत देता है। उसने बुरी तरह से चोट खाई है। वह खुद को एक खोटे सिक्के की तरह गई गुज़री महसूस करती है। उसे लगता है कि वह किसी लायक नहीं रही। उसका पति उसे स्वीकार करेगा या नहीं इसमें भी उसे शक है, पर यह भी सच है कि अमेरिका के तौर-तरीके उसे अलग पहचान देते हैं। खुद को उस तरह गर्हित नहीं महसूस करती जैसा कि भारत में करती थी।  इस तरह से यहाँ दो अलग- अलग नज़रियों का सम्मिलन हो जाता है जो प्रवासी साहित्य की ख़ास विशेषता बन जाता है।

उमेश अग्निहोत्री की कहानी ‘लव बर्ड्स’, सुदर्शन प्रियदर्शिनी की कहानी ‘अखबार वाला’ और मेरी अपनी कहानी ‘तीसरी आँख’ जो कि खुलकर अमेरिकी और भारतीय नज़रिए का तुलनात्मक अध्ययन करती चलती है। इस पर सोचते हुए मुझे अपनी और दूसरे प्रवासी लेखकों की बहुत-सी कहानियों का ध्यान आता है जो एक तरह से प्रवासी साहित्य की मौलिक विशेषता है।

प्रश्न : क्या आपका स्त्री होना आपके लेखन को प्रभावित करता है?

उत्तर : निश्चित रूप से करता है। मैं अपने उपन्यासों में अपने आत्म का विस्तार पाती हूँ। सिर्फ मेरे ही उपन्यासों में क्यों शिवानी, उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती—हमारे समय की जितनी भी बड़ी लेखिकाएँ हैं, उनके साहित्य में उनका स्त्री होना झलकता है।

प्रश्न : अभी आपने जिन कथा लेखिकाओं की बात की, उनमें अवश्य ही स्त्री अस्मिता के सवाल प्रमुख रहे हैं लेकिन उसके बाद, स्त्री-विमर्श के दौर में यह जिस रूप में विकसित होता है, प्रवासी लेखन में वह परिवर्तन कहाँ तक लक्षित होता है?

उत्तर : प्रवासी लेखन में उतना विकास नहीं है। प्रवासी लेखन अधिकांशत: उन महिलाओं द्वारा किया जा रहा है जो घरेलू स्त्रियाँ हैं और लिख-पढ़ रही हैं तथा स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहती हैं। उनकी दुनिया अपने अकेलेपन, घरेलू संबंधों आदि तक ही सीमित है।

मैंने सजग होकर यह कोशिश की है कि इस चक्रव्यूह को तोड़ सकूँ। कुछ-एक कहानियाँ वहाँ के काले लोगों की ज़िन्दगी पर लिखीं। वहाँ हम उनके जीवन को अपने ज़्यादा करीब पाते हैं। एक फ्रेंच महिला मेरी करीबी दोस्त हैं, जिनके घर मेरा आना-जाना होता है। मैं पेरिस में उनके यहाँ रही हूँ, वे मेरे घर रही हैं। उनके जीवन-अनुभव को करीब से देखा। उस पर मैंने एक कहानी लिखी थी लेकिन पाठकों की कहानी पर कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं हुई। संभवत: पाठक उस कहानी से जुड़ नहीं पाए। हमारा पाठक वर्ग विदेश में नहीं है। हमारी कहानियों के पाठक हिंदुस्तान में ही हैं और यदि हम उस परिवेश की ऐसी कहानियाँ लिखते हैं जो यहाँ से बहुत भिन्न है तो हमारे पाठकों में उसकी बहुत स्वीकृति नहीं बन पाती। यह सारी बात इस बात से भी जुड़ी हुई है कि वहाँ की दुनिया का जो हमारा अनुभव है उसे पढ़ने और स्वीकारने के लिए भारतीय पाठक अभी तैयार नहीं है।

प्रश्न : कुछ लोग प्रवासी लेखन को अतीत-जीवी या नास्टैल्जिया भरा पाते हैं। इस विषय में आपका क्या कहना है?

उत्तर : हाँ, कुछ लोग इसे प्रवासी लेखकों का नास्टैल्जिया भी कहते हैं। नास्टैल्जिया बुरी चीज नहीं है। यह एक मूल्य  है जो पहली पीढ़ी के प्रवासी लेखकों की चेतना का अंश है। उसका होना ही प्रवासी साहित्य का विशेष होना है। इससे वह कमतर नहीं होता बल्कि एक साथ दोहरी संवेदनाओं  से पाठक का साक्षात्कार होता है, कथा में दोहरा रस मिलता है। कहानी का बिम्ब और घना हो जाता है। फिर सच यह भी है कि पाश्चात्य जगत में हिंदी में लिखने वाले प्रवासी लेखक ज़्यादातर पहली पीढ़ी के ही हैं। इसलिए दोहरी चेतना उनमें रहती ही है। इसे नास्टैल्जिया कहकर दुत्कारने की ज़रूरत नहीं है। यह तो यहाँ  के जीने का एक तरीका है, जहाँ हम लगातार दो संस्कृतियों, दो तरह की संवेदनाओं और नज़रियों के साथ जीते हैं। हमारे चाल चलन, हमारी सोच, हमारी प्रतिक्रियाओं में बसे रहते हैं। यहाँ के बच्चे प्रवासी लेखक नहीं बन सकते। हिंदी सीख जायें वही बहुत दूर की बात है। एक असंभव संभावना। उनका लेखन जब सामने आएगा तो अंग्रेज़ी में ही होगा। इसलिए जब हम हिंदी प्रवासी लेखन की बात करते हैं तो पहली पीढ़ी के लेखन की ही होती है और इसमें दोहरी संवेदना का होना स्वाभाविक ही है।

प्रश्न : विदेशी साहित्य का हिंदी साहित्य से सदा संवाद रहा है। दोस्तोवस्की, ब्रेख्त, मार्खेज़ आदि अनेक विदेशी लेखकों ने अपनी-अपनी तरह हिंदी साहित्य को प्रभावित किया तो क्या कारण है कि प्रवासी साहित्य अपने समय के विदेशी साहित्य जैसा विस्तृत भावबोध प्रस्तुत नहीं करता?

उत्तर : पश्चिम की संस्कृति, भारतीय संस्कृति और साहित्य से काफी भिन्न है। वहाँ कोई आपके लिए दरवाज़ा नहीं खोलता। वैसा ही साहित्य में भी है उनका लेखन मनन जिस दिशा में बढ़ रहा है, उसका दरवाज़ा भारतीय साहित्य की ओर नहीं खुलता। यह अफसोस की बात है लेकिन यह भी सच है कि प्रवासी भारतीय लेखकों ने भी उन साहित्य गतिविधियों का हिस्सा बनने की कोई खास कोशिश नहीं की।

प्रश्न : क्या इस दृष्टि से प्रवासी साहित्य का एक दायरा बन गया है जिसमें उस साहित्य के लेखक और पाठक प्रायः वे स्वयं ही हैं?

उत्तर : दरअसल हिंदी में वही लोग लिख रहे हैं जो हिंदुस्तान से हिंदी पढ़ कर गए हैं और वहाँ  पहुँचकर अपने अकेलेपन को खत्म करने के लिए वे साहित्यिक गतिविधि को माध्यम बनाते हैं पर ज़रा सोचकर देखिए आज अधिकतर प्रवासी लेखक बुजुर्ग हो गए हैं। चाहें मैं हूँ या उषा राजे सक्सेना या दिव्या माथुर, तेजेंद्र शर्मा आदि सब लोग मृत्यु के कगार पर ही हैं। 2015 के ‘हंस’ पत्रिका के प्रवासी लेखन विशेषांक के लिए उसके संपादक संजय सहाय ने टिप्पणी की कि प्रवासी लेखक बूढ़े हो रहे हैं तो उनके हाथों बुढ़ापे और मौत की कहानियाँ ही आ रही हैं। एक तरह से यह प्रवासी लेखन के अंत या मौत की ओर संकेत था। इस कथन के मूल में मेरी कहानी ‘कितने कितने अतीत’ तथा तेजेंद्र शर्मा की कहानी ‘मौत एक मध्यांतर’ थी।

प्रश्न : प्रवासी साहित्य का भविष्य आप किस रूप में देखती हैं?

उत्तर : इस उत्तर औपनिवेशिक काल में प्रवासन की प्रक्रिया खत्म होती नहीं दिख रही तो जब तक हिंदी वाले बाहर की दुनिया खोजते रहेंगे, प्रवासी लेखन का विकास भी होता रहेगा। हर व्यक्ति की सोच इस बात से जुड़ी रहती है कि उसका देश-काल क्या है? उसकी प्रतिक्रियाएँ  उसके अनुरूप ही होती हैं। प्रवासी साहित्य में खास बात यह है कि वे लगातार यह समझने की ही कोशिश करते हैं कि प्रवासी की स्थिति में वे कैसे रिएक्ट करेंगे? यह सब कुछ उनके इस अनुभव पर ही निर्भर है कि उनमें दो मिट्टियों का सम्मिश्रण है। उसकी चेतना तैयार हुई है भारत की मिट्टी में और एक अलग परिवेश में रोप दी गई है। यह दोहरी चेतना ही उसे समृद्ध करती है लेकिन अब एक और स्थिति भी पनप रही है जो चिंता का विषय है। अब सभी देश आत्म-केन्द्रित होना चाहते हैं जिससे प्रवासियों के आगमन पर हर कोई लोग रोक लगा रहा है, तो यह कोई असंभव स्थिति नहीं है कि लोग इमिग्रेंट स्टेटस में दूसरे देशों में न रह पायें तब यह सवाल प्रवासी साहित्य को लेकर चिंता पैदा करते हैं। और फिर जैसे हिंदी भाषा के अस्तित्व को लेकर हमारी चिंता बनी हुई है कि उसे कैसे सुरक्षित रखें, वैसे ही प्रवासी साहित्य को लेकर भी होगी। प्रवासी साहित्य का भविष्य राष्ट्रों के बनने बिगड़ने और संसार के गतिशील रूप-रंग पर निर्भर करता है। यह व्यक्ति और संसार की गतिशीलता के कारण ही अस्तित्व में आया और अब उसकी वजह से ही अगर तिरोहित हो जाए तो क्या आश्चर्य की बात होगी!

रेखा सेठी : सुषम जी, हम कामना करते हैं कि आपका लेखन व प्रवासी साहित्य नयी ऊंचाईयों को प्राप्त करे। हमसे बात करने के लिए धन्यवाद, भविष्य में आपके लेखन के लिए शुभकामनाएँ!

*उस समय हम कहाँ जानते थे कि भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है और भविष्यत् सुषम जी को हमसे इतना दूर ले जाएगा। वे जहाँ भी हैं अपने साहित्य के माध्यम से अपने पाठकों के हृदय में सदा रहेंगी। उनकी स्मृति को श्रद्धापूर्ण नमन!